Papa dadi kab maregi

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सुबह के ६ बज रहे होंगे जब अनुपम, मेरा बड़ा भाई, मुझे जगाने आया.

 “आदित्य, बीना दीदी के यहाँ से फ़ोन आया था. उनके घर जाना पढ़ेगा”.
 
मैं – पर मुझे आज एक client का रिपोर्ट बनाना है. तुम स्योर हो की इस बार उनकी सास का डेथ हो गया है? परसों की तरह न हो की वेट ही करते रहें.
 
अनुपम – अभी तक तो नहीं हुआ है डेथ. पर जीजाजी कह रहे थे की बस अब गयी तब गयी. तुम आज चले जाओ न. मुझे आज दोबारा से छुट्टी नहीं मिलेगी और हमारे यहाँ से एक न एक आदमी का जाना जरूरी है.
 
मै मन मार कर उठा और जाने के लिए तैयार होने लगा. भैया ने मुझे मेट्रो स्टेशन तक छोर दिया ताकि मेरा frustration कुछ कम हो सके.  जनकपुरी तक जाना था. मतलब पूरा एक घंटा. मैंने एक newspaper खरीद लिया और पढ़ने में लग गया. बीच में एक झपकी भी ले ली.
 
खैर किसी तरह मैं बीना दीदी के घर पहुंचा और देखा की काफी सारे लोग आ चुके थे. ज्यादातर लोग जीजाजी के तरफ से थे तो मैं किसी को पहचानता नहीं था. सामने किचेन में एक बड़े से सोसपेन में चाय चढ़ी हुई थी. अन्दर कमरे से औरतों के फुसफुसाने की आवाज़ आ रही थी जो बीच बीच में ठहाकों में बदल जा रही थी. बच्चों की तो मनो फौज ही आ गयी थी. वह एक कमरे से दुसरे कमरे में दौड़ रहे थे.
 
बहार के एक कमरे का दरवाजा हल्का सा भिड़ाया हुआ था. यहीं बीना दीदी की सास अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी. दरवाजे के एक फोड़ से अन्दर का नज़ारा दिख रहा था. बेड़ पर बीना दीदी की सास अकेले लेटी हुई थी. एक मैली सी साडी जो कभी सफ़ेद रही होगी उनके बदन को ढके हुए था. सामने टेबल पर एक ग्लास पानी और कुछ दवाइयां पढ़ी हुई थी. पास ही एक लोत्की और कुछ तुलसी के पत्ते रखे हुए थे.
 
तभी पीछे से जीजाजी आ पहुंचे. ” अरे आदित्य आप कब आये ?”
 
मैं – बस अभी दस मिनट ही हुए होंगे. बीमार हो गयी थी क्या?
 
जीजाजी – बुढ़ापे से बढ़ कर कोई बीमारी होती है क्या. अब तो जितनी जल्दी देह त्याग दे उतना अच्छा. अनुपम जी ने तो बताया होगा की कैसे परसों लगा की अब गयी तब गयी. और फिर कुछ नहीं हुआ. 
 
मैं – कहाँ ले जाने का प्लान है?
 
जीजाजी – मम्मी ने पडोसी की माँ को हरिद्वार जाते हुए देखा था. बस कह बैठी की मुझे भी हरिद्वार ले जाना. 
 
तभी बीना दीदी आ पहुँचती हैं. मैं उनके पैर लगता हूँ. आशीर्वाद देते हुए ही वो कहती हैं – हाँ हाँ अपनी मम्मी की आखरी ख्वाइश पूरी करो. परसों ही ३००० रुपये गए. अब और १०००० दो.
 
मैं – ३०००! क्यूँ क्या हुआ? कहाँ लग गए ३०००?
 
जीजाजी – अरे मैंने सोचा की अब तो मम्मी जी गयी तो मैंने एक बस ठीक कर ली. बस हरिद्वार की थी तो सस्ती मिल गयी थी. पर जब कुछ नहीं हुआ और काफी देर वेट करना पढ़ गया तो बस वाले ने ३००० रुपये चार्ज कर लिया. आज इसीलिए कोई गाड़ी बुक नहीं किया है अभी तक. अगर आज भी कुछ नहीं हुआ तो दोबारा से प्रॉब्लम हो जायेगा.
 
बीना दीदी – अरे प्रॉब्लम क्यूँ होना है. मम्मी जब रहेंगी नहीं तो उन्हें क्या मालूम चलेगा की हरिद्वार ले गए या निगमबोध घाट. फिर निगमबोध घाट भी तो यमुना किनारे है. यमुना कोई कम पावन नदी है क्या?
 
जीजाजी – यार लेकिन अच्छा नहीं लगता. लोग क्या सोचेंगे.
 
बीना दीदी – लोग तो कहते ही रहते हैं. उनको तो बस श्राद्ध खाना है. उनकी जेब थोरे न हलकी हो रही है.
 
जीजाजी – ठीक है, ठीक है. पहले मम्मी का देहांत तो हो जाये. फिर देखेंगे की क्या करना है.
 
बीना दीदी गुस्से में वहां से निकल गयी.
 
तभी बीना दीदी का छोटा बेटा सौरभ आ गया. सौरभ ८ साल का था.
 
वो हमारे पास आया और बोला – पापा दादी कब मरेंगी.
 
मैं – सौरभ अपनी दादी के लिए ऐसे नहीं कहते हैं.
 
सौरभ – सॉरी मामाजी. वो न मेरा क्लास्स्मेट है नवीन. उसका घर हरिद्वार में है. वो कह रहा था की हम उसके घर जा सकते हैं. वहां उसके पास काफी खिलोने हैं. (अपने पापा से जो अब फ़ोन पर busy थे) पापा मैं जा सकता हूँ न नवीन के घर.
 
जीजाजी – अब दादी मरेगी तब तो कोई कहीं जायेगा. सब को अपनी अपनी पढ़ी है. अभी बॉस का फ़ोन आया था. पूछ रहा था कब आओगे ऑफिस. मैंने कहा मेरी माँ मरने वाली हैं. कहते हैं जब फ़ाइनल हो जाये तब छुट्टी मार लेना. साले सब के सब insensitive हो गए हैं.  
 
तभी अन्दर से चीखने चिल्लाने की आवाज़ आने लगी. finally बीना दीदी की सास ने दम तोड़ दिया था. सभी लोग सर झुका कर धीरे धीरे बाहर वाले कमरे में पहुंचे. २-३ औरतें अलग अलग तरीके से रो रही थी. दो-एक आंसू की बूँदें मेरे आँखों से भी छलक गयी.
 
करीब १० मिनट के बाद जीजाजी और अन्य मर्द बाहर निकल आये.
 
भीड़ से कुरता पजामा पहने एक व्यक्ति ने जीजाजी के प्रति सद्भावना दिखाया – प्रभाकर बाबु आपको धैर्य रखना पढ़ेगा. जीना मरना तो विधि का विधान है. इस विधान को तो बड़े बड़े लोग नहीं बदल पाए. फिर हम आप तो काफी छोटे लोग हैं.
 
भीड़ से दूसरा व्यक्ति – सही कह रहे हैं मिश्र जी. प्रभाकर बाबु अब आपको आगे के बारे में सोचना पढ़ेगा. वैसे कहाँ जाने का प्लान है?
 
इससे पहले की जीजाजी कुछ कहते, मैंने अपनी सलाह दे मारी. – दीदी सही कह रही हैं जीजाजी. अभी हरिद्वार जाने में काफी खर्च आयेगा. फिर सबका ऑफिस भी है. shukravar होता तो कोई प्रॉब्लम नहीं था. रिलाक्स करने के लिए शनिवार और रविवार होते. मुझे तो निगमबोध घाट का आईडिया सही लग रहा है.
 
जीजाजी कुछ देर तक चुप रहे. शायद मेरा आईडिया उन्हें जम गया था. फिर बोले निगमबोध घाट ही चलते हैं.
 
सारी तय्यरियाँ होने लगी. ज्यादातर सामान परसों ही आ गया था. तो लास्ट टाइम के झंझट नहीं थे. सौरभ ने थोरा सा नाटक किया पर ज्यादातर लोग खुश लग रहे थे. मैं भी. मैंने चुपके से ऑफिस में कॉल कर दिया की मैं लंच के बाद  ऑफिस पहुँच जाऊँगा.
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